चातुर्मास प्रवचन माला -14

अच्छे भाव से ही जीवन का कल्याण

देश न्यूज

कोटा 14 जुलाई। आत्म शुद्धि युक्त जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए। कर्मों की चाह नाना प्रकार के कषायों से जीवन को जकड़ लेती है । जीवन में जैसे कषाय आ जाते हैं वैसे ही पुण्योदय भी होता है। इस दौरान पुण्य अर्जन और आत्मा की पहचान करने वाले धन्य होते हैं। भाव जगत में क्रोध की उत्पत्ति भी होती है और सम भाव की भी। मन में राग द्बेष नहीं रखना चाहिए इससे भाव शुद्धता उभरती है ।
जैन साध्वी मणिप्रभा श्री जी ने कोटा के पार्श्व कुशल धाम दादाबाडी की धर्मसभा में अपने नित्य प्रवचनों में मानव जीवन को अशांति के शमन और शांति के प्रादुर्भाव पर प्रवचन दिए । जनसभा में प्रवचन सुनने देशभर से साध्वी जी के अनुयाई कोटा पहुंच रहे हैं। शुक्रवार की धर्म सभा मे जयपुर के सुविख्यात परोपकारी विमल सुराणा जी आए। इंदौर से नई दुनिया के अभय छजलानी के सुपुत्र विनय छजलानी का दैनिक देश की धरती कोटा के प्रधान संपादक प्रदीप छाजेड़ एवं कोटा के पुलिस उपाधीक्षक अंकित जैन ने अभिनंदन किया। वहीं श्री सुराणा जी का बहुमान श्री जैन श्वेतांबर पेढी दादाबाड़ी के अध्यक्ष लोकेन्द्र डांगी, विमल धारीवाल अजीत चंडालिया एवं कार्यकारिणी सदस्यों ने किया ।
धर्मसभा में साध्वी जी ने प्रवचन में कहा कि क्रोध, मान माया से घिरा शरीर कर्म योग नहीं हो सकता ।प्रतिकूलता से क्षमता खंडित हो जाती है। अच्छे बुरे का क्रम चलता रहता है जिससे जागृति नहीं आती। निर्मलता और मित्रता के भाव से ही मन कषाय कम होते हैं। यह शरीर पंचभूत से ही बना है। भोजन भी पंचभूत की उत्पत्ति है, जिससे शरीर चलता है।
सत्संग महिमा का उदाहरण सहित विवरण देते हुए जयपुर के जौहरी अमरचंद नाहर का नामोल्लेख किया। जिन्होंने गुरुवर्या विचक्षण श्री महाराज सा. के उपदेश ग्रहण करके 18 वर्ष तक मौन तप की साधना की और अपने जीवन को धन्य बनाया ।

शरीर पंचभूत का पिंड है। आत्मा है जब तक जीवन राग का कार्यक्रम चलता रहता है। शरीर को समझने वाला प्राणी ऊंच-नीच नहीं करता। शरीर नश्वर और आत्मा अजर अमर है । आत्मा पहचानने वाले करोड़पति भी कभी-कभी दीक्षित होते हैं। उनके मन में शारीरिक वैभव के भाव आते ही नहीं ।
कषाय भाव से जीवन जीने की आदत हो गई है । भाव जगत जिंदगी को अपनी मान लेता है। माया, मोह में सत्संग का त्याग कर देता है जबकि पुण्य भाव से योग्यता आती है। पाप छुपाने में दक्ष हो गए हैं और कलाकार इतने है कि छोटा मोटा भी पुण्य कार्य छपाने के लिए उतावले, बावले हैं। राग द्वेष इतना कि एक दूसरे की अच्छाई खोजने में मुंह में दही जम जाता है। संसार में सबके अपने-अपने भाव हैं। सत्संग सबके कल्याण भाव की व्याख्या करता है।

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