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5 अगस्त 1960 को रिलीज हुई थी फिल्मविवेक शुक्लायकीन नहीं होता कि मुंबई के मराठा मंदिर और दिल्ली के गोलचा सिनेमाघरों में जब हिन्दी सिनेमा की एक बड़ी शाहकार मुगल-ए-आजम फिल्म 5 अगस्त 1960 को रिलीज हुई तो उसे दर्शकों ने हाथों-हाथ नहीं लिया। कहना न होगा कि इससे फिल्म के निर्माता शापूरजी पोलोनजी, डायरेक्टर के. आसिफ और कलाकारों की नींद उड़ गई होगी।हैरानी इस बात की थी फिल्म की पृष्ठभूमि मुस्लिम थी और इसमें दिलीप कुमार का मुख्य किरदार था, फिर भी इसे पहले हफ्ते बेहद ठंडा रिस्पांस मिला। दिलीप कुमार की कोई फिल्म मुंबई या दिल्ली के दो सिनेमाघरों (गोलचा और इक्सेल्सीअर) में हलचल न मचाए तो यह अप्रत्याशित ही था। दिलीप कुमार पर जान निसार करती थी दिल्ली- मुंबई। इससे भी बड़ी बात ये थी कि वे संभवत: किसी फिल्म में पहली बार एक मुस्लिम किरदार निभा रहे थे। फिर भी मुगल-ए-आजम को लेकर मुंबई-दिल्ली की बेरुखी बनी हुई थी। इसकी क्या वजह थी ये बात आजतक पहेली है।दूसरे हफ्ते से दिल्ली-मुंबई और देश के बाकी शहरों से फिल्मों के चाहने वाले मुगल-ए-आजम देखने के लिए निकले। इसके संवाद, फोटोग्राफी, संगीत वगैरह की अखबारों में बेहतर रिव्यू निकले। मधुबाला पर फिल्माए गीत प्यार किया तो डरना क्या… और लाजवाब सेट ने माहौल बना दिया। देश इस गीत को गुनगुनाने लगा। इसके साथ ही आप कह सकते हैं कि दूसरे हफ्ते से मुगल-ए-आजम का भाग्य चमकने लगा। सबको मुगल-ए-आजम के संवाद, भव्य सेट और फोटोग्राफी भी पसंद आने लगे।अब 60 साल हो रहे हैं मुगल-ए-आजम को रिलीज हुए। इसका जगह-जगह प्रचार हुआ था। इसके पोस्टरों से दीवारें रंग दी गई थीं। इसको लेकर माहौल तो बन गया था कि ये एक बड़ी फिल्म होने जा रही है। रेलवे बोर्ड के पूर्व मेंबर और लेखक डॉ. रविन्द्र कुमार ने 1960 में मुगल-ए-आजम को दिल्ली के गोलचा और 2004 में जब ये रंगीन बनकर आई तो मुंबई के ईरोज में देखा था। वे मुगल-ए-आजम में दिलीप कुमार, मधुबाला और पृथ्वीराज कपूर के बेजोड़ अभिनय, भव्य सेट, बेहतरीन गीत-संगीत, फोटोग्राफी, डॉयलॉग, स्क्रीनप्ले और के. आसिफ के निर्देशन को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए थे। देश की कायस्थ बिरादरी के लिए मुगल-ए-आजम देखना अनिवार्य हो गया था क्योंकि इसकी फोटोग्राफी किनारी बाजार के पास अनार गली के एफ.सी. माथुर ने की थी। मुकेश भी इसी मोहल्ले से थे। इस बीच, फिल्म के निर्माता शापूरजी पोलोनजी और फाइनेंसर, जो अब 90 के आसपास हैं, फिल्म सेट वगैरह पर पानी की तरह से पैसा बहा रहे थे।भारतीय सिनेमा का लंबे समय से अध्ययन कर रहे वीर विनोद छाबड़ा बताते हैं कि प्यार किया तो डरना क्या… के लिए सेट बनाने में पूरे दो साल लगे। इसमें इस्तेमाल किया गया ज्यादातर शीशा बेल्जियम से मंगाया गया। इसके निर्माण पर दस लाख ख़र्च हुए। शापूरजी ने चूं तक नहीं की। उन्हें यकीन था कि आसिफ़ मुगल-ए-आज़म के रूप में एक यादगार फिल्म बनाने जा रहे हैं।बहरहाल, दिल्ली में मुगल-ए-आजम की टिकट चाहने वाले टूटने लगे तो गोलचा से कुछ फासले पर स्थित पटौदी हाउस से सटी विशाल लालकोठी में रौनक लौट आई। दरअसल लालकोठी आशियाना था मदनलाल कपूर का। उन्होंने ही मुगल-ए-आजम को रिलीज किया था। वे बड़े असरदार फिल्म वितरक थे। कपूर ही तय करते थे कि दिल्ली में फिल्म को किन-किन सिनेमाघरों में रिलीज करना है। दिलीप कुमार से उनका याराना था। दिलीप कुमार अपनी फिल्मों के रिलीज होने से पहले लालकोठी में दस्तक देते थे। अब लालकोठी में कपूर साहब की पत्नी रहती हैं। वह भी 90 के आसपास हैं।दिलीप कुमार मुगल-ए-आजम में पृथ्वीराज कपूर के सामने उन्नीस रहे थे, पर देश ने इस फिल्म को बार-बार देखा। दिल्ली के चाहने वालों को लग रहा था असरदार और अच्छे डायलॉग पृथ्वीराज कपूर को मिले और कैमरे के सामने ज़्यादातर उन्हीं का चेहरा रहा।दिलीप साहब अपनी सभी फिल्मों के प्रमोशन के लिए दिल्ली आते थे। दिलीप कुमार दीदार (1951) देवदास ( 1955), गंगा-जमुना (1961) और लीडर ( 1964) जैसी फिल्मों के प्रचार के लिए आए थे। ये सभी फिल्में सुपरहिट हुई थीं। पर वे मुगल-ए-आजम के समय नहीं आए। मुंबई और दिल्ली के दर्शक रोज उनका इंतजार करते पर बात नहीं बनी। बाद में पता चला कि फिल्म के डायरेक्टर के. आसिफ से उनका रिश्ता तल्ख होने लगा था। दिल्ली कुमार ने अपनी आत्मकथा Dilip Kumar: The Substance and the Shadow लिखा है कि शादीशुदा आसिफ ने उनकी बहन अख्तर से शादी कर ली थी। उन्हें तो बाद में पता चला जब शादी हो गई थी। इसलिए उन्होंने दोनों से जिंदगीभर के लिए रिश्ते तोड़ लिए थे। पर मुगल-ए-आजम जब 2004 में रंगीन बनी और ईरोज में रिलीज हुई तो दिलीप साहब और सायरा बानो पहला शो देखने आए थे। तब तक के. आसिफ को गुजरे एक जमाना हो चुका था।इस बीच, आपको दिल्ली, मुंबई और देश के दूसरे बड़े शहरों में बड़े निर्माण कार्यों के बाहर शापूरजी पोलोनजी का बोर्ड मिल सकता है। इस नाम को पढ़कर चौंकिए मत। ये वही मुगल-ए-आजम के निर्माता हैं। उन्हीं की कंपनी राजधानी में प्रगति मैदान को नए सिरे से खड़ा कर रही है। उनके पुत्र सायरस कुछ समय तक टाटा ग्रुप के चेयरमैन भी रहे थे।(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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