पीएम मोदी को अनलाइक करने लगे हैं बड़े मीडिया हाउस। श्री मोदी का भाषण, यहां तक कि लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधन बड़े मीडिया घरानों के अखबारों के भीतरी छठे, सातवें पन्ने पर स्थान पा सका है यह कोई सोची-समझी अभिव्यक्ति का दिग्दर्शन है या केंद्र सरकार का लचर मीडिया मैनेजमेंट? हद तो तब हो गई जब टुकुर मीडिया ने एक विज्ञप्ति के एक पैरे की भांति महामहिम राष्ट्रपति जी के राष्ट्र के नाम उद्बोधन का आंकलन किया और पन्ने के किसी एक कोने में खानापूर्ति करने वाली इज्जत बक्शी। ऐसा काफी अरसे से निरंतर देखने में आ रहा है।
तो क्या बड़े मीडिया हाउस पीएम मोदी के भाषणों से ऊब गए हैं या उनके विचारों को नीरस समझने लगे हैं? यदि सरकार का अंकुश या हस्तक्षेप होता तो क्या वे ऐसा कर पाते? इधर व्हाट्सएप और फेसबुक को नियंत्रित करने के गंभीर आरोप सामने आए हैं। सरकार ने इसे उस आरोप को दबाने की साजिश बताया है, जिसमें कहा जा रहा है कि कांग्रेस के 100 नेताओं ने पार्टी नेतृत्व बदलने की मांग उठाई है।
यह राजनीतिक चुहलंबाजियां है जिसके जरिए घात – प्रतिघात सदानीरा नदी कीबहती धारा की भांति प्रवाहमान है। सोशल मीडिया और संचार की नई-नई प्रणालियां जीवन में जहर घोलने वाली भी साबित हो रही है। नफे के साथ नुकसान भी जुड़ा ही रहता है। इनसे क्या घबराना। लेकिन सचेत रहने की जरूरत तो है। बड़े बड़े एकेडेमिक्स जिनके इशारों पर भारत की संसदीय राजनीति आकार लेती थी वे आज फेसबुक और व्हाट्सएप से घबराए है।
सवाल कांग्रेस या बीजेपी भर का भी नही है असल मे फलक तो इससे कहीं बड़ा है। उसे आप सियासी चश्में की सीमित नजर से मत देखिये।यह घबराहट उस खोखले बौद्धिक जिहादी साम्रज्यवाद के पतन की पटकथा भी है । कश्मीर से 370 हटाने और चीन से निबटने की सरकार की नीतियों पर हुए विविध सर्वेक्षण प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता को शिखर पर स्थापित कर रहे है तो इसमें बीजेपी कैडर नही, इसी वर्चुअल स्पेस का योगदान अहम है।
महेश भट्ट की सड़क छाप मूवी के ट्रेलर को एक करोड़ से ज्यादा लोगों ने नापसन्द किया है।आमिर खान ने जिस तरह तुर्की घराने से याराना दिखाया है उसका जबाब भी वर्चुअल औऱ मल्टीप्लेक्स पर देखने को मिलना तय है।
अभी राजनीति में हेटस्पीच इसका सब्जेक्ट बना हुआ है। मी-टू का दौर ठंडा पडने के पश्चात अब कल को बड़े-बड़े महारथियों के चरित्र से जुड़े सेक्स स्कैंडल्स का दौर भी चलने की संभावना से इनकार किया जा सकता है क्या ? देशद्रोह यानी कि सरकार गिराने के रिकॉर्ड मैसेजों ने हमारे अपने प्रदेश में कैसा बवाल मचाए रखा? तथाकथित कुछ बड़े प्रिंट मीडिया ने बेलगाम लाइन पकड़ ली लगती है । इस तथ्य/धारणा से इनकार नहीं किया जा सकता । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी पक्ष विपक्ष में बंटता जा रहा है। देश में छोटे और मध्यम तथा मझोले प्रिंट मीडिया के अस्तित्व पर ही बनाई है। जबकि यही वह मीडिया तंत्र है जो बड़े बड़ों की निरंकुशता पर भी अंकुश लगाता रहा है। सरकारों से ऐसी नीतियां बनवाई और लागू की जा रही है कि कैसे इस लघु प्रिंट मीडिया को कुचला जा सके। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहिष्णुता तक ही बहस छिड़ी हुई है। इसका दायरा व्यापक सोच वाला हो, जो छोटे मीडिया को भी संरक्षण दे सके। इस ओर भी ध्यान दिया जाए। मझोले प्रिंट मीडिया को संरक्षण की दरकार है ।जो देश के दबे कुचलों की आवाज है।
गयाप्रसाद बंसल