खरतरगच्छाधिपति आचार्य भगवंत श्री जिनमणिप्रभ सूरीश्वर जी म सा की मंगल वाणी

मैं एक श्रावक से वार्तालाप कर रहा था। बचपन की कुछ पुरानी स्मृतियाँ साझा हो रही थी। बचपन की बातों को याद करके वह कह रहा था- मैं छोटे-से गांव में रहता था। स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता था। गायें चराने जंगल में जाया करता था। दिन भर जंगल में आराम से घूमना… फलों का मधुर स्वाद लेना… शाम होते ही घर चले आना… और खा पी कर सो जाना!
क्या जिन्दगी थी! कोई तनाव नहीं… कोई पीडा नहीं… कोई चिन्ता नहीं!
बाद में स्कूल जाना नियमित प्रारंभ हुआ। पर तब भी मन बैचेन न था।
पर ज्यों ज्यों बडे होते गये… त्यों त्यों चिन्ताओं का विस्तार होता गया।
मैं विचार करने लगा। चिंता का कारण विस्तार है। पीडा का कारण फैलना है।
हम हैं कि जिन्दगी भर केवल और केवल विस्तार में लगे हैं।
पदार्थों का विस्तार, आसक्ति का विस्तार, व्यापार का विस्तार… बंगलों का विस्तार…
और मुश्किल यह है कि इस विस्तार की कल्पना में हम सुख का अनुभव करते हैं। सुख के लिये ही विस्तार करते हैं और दुखी हो जाते हैं।
सोचा तो यही था कि जितना ज्यादा विस्तार होगा, उतना सुखी हो जाऊँगा!
पर हुआ उल्टा!
जितना ज्यादा विस्तार किया, वह उतना ही दुखी होता चला गया।
गांव की नींद में कितनी गहराई थी! कितना चैन था!
यहाँ तो नींद के लिये दवाई का प्रयोग करना पडता है।
गांव में सुबह उठता था तो कितनी ताजगी के साथ!
यहाँ उठता हूँ उनींदी आँखें लिये… सिर पर जैसे बोझ लिये…!
बहुत भाग दौड हुई। बहुत बांहें फैलायी मैंने! अब समेटने का पुरूषार्थ करो।
आसक्ति को समेटो! मन को समेटो!
शहर की भागदौड वाली जिन्दगी से भाग कर वही गांव वाली जिन्दगी में रम जाओ। फिर चलो जंगल की ओर… प्रकृति के बीच अपनी प्राकृतिक जीवन की सोच के साथ! मन को विस्तार से मुक्त करो। यही सुखी जीवन का राज है।

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