द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूरे विश्व में शांति स्थापना के साथ-साथ विश्व के देशों में पारस्परिक मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने , एक – दूसरे के अधिकार एवं स्वतंत्रता को ससम्मान बढ़ावा देने , शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षैत्र में विकास के उद्देश्य से 24 अक्टूबर 1945 को ‘ संयुक्त राष्ट्र संघ ‘ का गठन किया गया । अपने गठन के 50 वर्ष बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने यह महसूस किया कि 21वीं सदी में भी विश्व के अनेक देशों में निवास करने वाला आदिवासी समुदाय अशिक्षा , गरीबी , बेरोजगारी , बंधुआ मजदूरी , अंधविश्वास एवं कुरीतियों आदि समस्याओं से ग्रसित है अतः आदिवासियों के कल्याण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक कार्यदल UNWGIP का गठन किया जिसकी पहली बैठक का आयोजन 9 अगस्त 1982 को रखा गया । इस बैठक की स्मृति में 1994 से प्रतिवर्ष 9अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाने की शुरुआत की गयी ।

” हम आपके साथ है ” ….. उक्त घोषणा संयुक्त राष्ट्र संघ के 9 अगस्त 1994 को जेनेवा में विश्व के अनेक देशों से आये प्रतिनिधियों के प्रथम अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस पर की गई । इस अवसर पर संयुक्त राष्ट्र संघ के तात्कालिक महासचिव एंटोनियो ग्युटेरेस ने साथ ही यह भी घोषणा की कि ‘ इस अवसर पर हम आदिवासी समाज की आत्मनिर्भरता , स्वशासन , पारम्परिक भूमि क्षेत्रों और प्राकृतिक संसाधनों समेत उनके सभी अधिकारों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा को पूरी तरह समझाने के लिए प्रतिबद्ध है….’ । 9 अगस्त का दिन आदिवासी समुदाय की अपनी भाषा, संस्कृति , रहन – सहन, खान – पीन , वेशभूषा , रीति-रिवाज और परम्पराओं को जिंदा बनाये रखने के लिए आवश्यक संरक्षण उपलब्ध करवाने के साथ-साथ उनके जल , जंगल और जमीन के पारम्परिक अधिकार के लिए संकल्पबद्ध होने का दिन है । वही मुख्य धारा के लोगों के खुद से ये सवाल पूछने का दिन भी दिन है कि क्या वास्तव में हम संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्देशानुसार ‘ हम आपके साथ है ‘ ‌। आज भी आदिवासी समुदाय की हालत ‘ दोयम दर्जे ‘ की बनी हुई है । आजाद भारत में भी आदिवासी समुदाय के लिए बर्बर , हिंसक ,असभ्य , जंगली , ग्वार इत्यादि शब्दों का प्रयोग करने के साथ-साथ कुछ राज्यों में तो नक्सली , अलगाववादी और माओवादी कहकर आदिवासी समुदाय को लांछित और प्रताड़ित किया जाता है । इसके अलावा संशय और भ्रम की नजरों से देखा जाता है ।

आदिवासी शब्द दो शब्दों – ‘ आदि ‘ और ‘ वासी ‘ से मिलकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है – मूल निवासी अर्थात आदिकाल से निवास करने वाले । भारत में आदिवासियों को दो वर्गों में अधिसूचित किया गया है – अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित आदिम जनजाति । हिन्दू विवाह अधिनियम , हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 2(2) के अनुसार अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लागू नही है । आदिवासी समुदाय अपने त्योहार का पालन करते है और अन्य समुदायों के संपर्क में आने से बचते है ।

भारत की जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत हिस्सा यानि लगभग 10 करोड़ लोग आदिवासी समुदाय के है जो भारत के विभिन्न राज्यों – मिजोरम , मेघालय , नागालैंड , अरुणाचल प्रदेश , मणिपुर , त्रिपुरा , सिक्किम , असम , झारखंड , प.बंगाल , राजस्थान , मध्य प्रदेश आदि में निवास करते है । भील , मीणा , बंजारा , गारो , खासी , जयंतियां , नागा , सहरिया , गरासिया , थारू , भोटिया , संथाल , गोंड , मुंडा , पटेलिया , सांसी आदि आदिवासी समुदाय की प्रमुख जातियां है । आदिवासी समुदाय प्रकृति पूजक है । प्रकृति में पाये जाने सभी जीव जंतुओं , पर्वत , नदियां , खेत – खलिहान , सूरज , चांद – सितारे इत्यादि की पूजा करते है । उनका मानना होता है कि प्रकृति की हर वस्तु में जीवन होता है ।
‘ जल , जंगल और जमीन हमारा है ‘ को लेकर आदिवासी समुदाय आज भी आंदोलनरत है ।

राजस्थान में 2011 की जनगणना आंकड़ों पर गौर करें तो पाएंगे कि राज्य की लगभग 13.5 प्रतिशत आबादी आदिवासी समुदाय की है किंतु सरकार की ओर से प्रर्याप्त संरक्षण उपलब्ध नही होने के कारण आज भी आदिवासी समुदाय की शैक्षिक ,सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति दयनीय बनी हुई है । वनोपज ही आदिवासियों की आजिविका का साधन है और कुछ क्षेत्रों में तो आदिवासी समुदाय अपनी मूलभूत आवश्यकताओं- रोटी, कपड़ा और मकान की पूर्ति नही कर पा रहा है । आज भी पूर्वी और दक्षिणी पश्चिमी राजस्थान के आदिवासी बहुल इलाकों में इनकी दयनीय स्थिति को देखा जा सकता है जहां न तो मोबाइल नेटवर्क की सुविधा है और ना ही बिजली की व्यवस्था । जहां ना सड़क सुविधा है और ना ही चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सुविधाएं ।

वर्तमान में जहां एक ओर हर समाज और व्यक्ति अपने विकास के लिए चांद और मंगल की ऊंचाईयों को छूना चाहता है वही दूसरी ओर आदिवासी समुदाय ही एकमात्र ऐसा समुदाय है जो अपनी अस्मिता , अस्तित्व और समान अधिकार प्राप्त करने के लिए संघर्षरत है । आज भी समाज में छुआ-छूत , उंच – नीच की भावना मौजूद है जो 21 वीं सदी के समाज के माथे पर कलंक है । भारत के इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसी शख्सियत है जिन्होंने झारखंड के आदिवासी समुदाय को एक नई दिशा देने का कार्य किया । राजस्थान में भी मोतीलाल तेजावत , गोविन्द गिरी , भोगीलाल पाण्ड्या , कालीबाई , सेंगाभाई और नानाभाई खांट ने आदिवासी समुदाय में शिक्षा की अलख जगाने के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वास को दूर करने हेतु प्रयास किया । आजादी के पश्चात केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने आदिवासियों के कल्याण के लिए योजनाएं तो बनाई किंतु राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी और प्रशासन की उदासीनता के चलते उनका लाभ आदिवासियों तक पहुंच नही पाया है । आज भी विभिन्न समाचार पत्रों में दलित और आदिवासी समुदाय के लोगों को ‘ मंदिर में प्रवेश नही करने देने ‘ और ‘ दूल्हे को घोड़ी से उतार देने ‘ की घटनाएं पढ़ने को मिल जाती है जो एक चिंतनीय एवं गंभीर बात है ।

विश्व आदिवासी दिवस पर आदिवासी समुदाय द्वारा काफी लम्बे अरसे से सार्वजनिक अवकाश की मांग को ध्यान में रखते हुए हाल ही में राजस्थान सरकार ने सार्वजनिक अवकाश की घोषणा की है जो कि एक सराहनीय कदम है क्योंकि अवकाश होने के कारण आदिवासी समुदाय के लोगों के साथ साथ अन्य समुदाय और जातियों के प्रबुद्ध लोगों को आदिवासियों की समस्याओं को समझने का मौका मिलेगा और उनके समाधान हेतु आवश्यक प्रयास किया जा सकेगा ।

महेश कुमार मीना ‘ बामनवास ‘

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